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अ॒ग्निनेन्द्रे॑ण॒ वरु॑णेन॒ विष्णु॑नादि॒त्यै रु॒द्रैर्वसु॑भिः सचा॒भुवा॑ । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण च॒ सोमं॑ पिबतमश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agninendreṇa varuṇena viṣṇunādityai rudrair vasubhiḥ sacābhuvā | sajoṣasā uṣasā sūryeṇa ca somam pibatam aśvinā ||

पद पाठ

अ॒ग्निना॑ । इन्द्रे॑ण । वरु॑णेन । विष्णु॑ना । आ॒दि॒त्यैः । रु॒द्रैः । वसु॑ऽभिः । स॒चा॒ऽभुवा॑ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.३५.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:35» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - इससे पुण्यात्मा राजा और राजमण्डल का आत्मा के उद्देश्य से वर्णन दिखलाया जाता है−(अश्विना) हे अश्वयुक्त राजन् तथा मन्त्रिदल ! आप (अग्निना) अग्निहोत्रादि शुभकर्म के (सचाभुवा) साथ ही हुए हैं। यद्वा यह आत्मा नित्य है, इस कारण अग्नि के साथ ही आप आविर्भूत हुए हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना। यद्वा अग्नि सामर्थ्य के साथ राजा रहते हैं, क्योंकि आग्नेयास्त्रों का प्रयोग सदा ही करना पड़ता है। इसी प्रकार (इन्द्रेण) विद्युच्छक्ति के साथ आप हुए हैं, क्योंकि विद्युत् की सहायता से बहुत अस्त्र बनाए जाते हैं, जिनसे राजाओं को सदा प्रयोजन रहता है। (वरुणेन) वरणीय जलशक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि प्रजाओं के उपकारार्थ जलों को नानाप्रकार नहर आदिकों से नाना प्रयोग में राजा को प्रयुक्त करना पड़ता है। (विष्णुना) आप सूर्यशक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि सूर्य्य के समान विद्याप्रचारादि से अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न करते हैं। (आदित्यैः) द्वादश मासों की शक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि जैसे द्वादश मास द्वादश प्रकार से जीवों को सुख पहुँचाते हैं, वैसे आप भी (रुद्रैः) एकादश प्राणों के सामर्थ्य के साथ हुए हैं, क्योंकि जैसे ये एकादश प्राण शरीर में सुख देते हैं, तद्वत् आप प्रजामण्डल में विविध सुख पहुँचाते हैं। तथा (वसुभिः) आठ प्रकार के धनों के साथ ही आप हुए हैं और (उषसा) प्रातःकाल इससे मृदुता शीलता आदि गुणों का (सूर्य्येण) सूर्य्य शब्द से तीक्ष्णता प्रताप आदि का ग्रहण है, इसलिये मृदुता और तीक्ष्णता दोनों गुणों से आप (सजोषसा) सम्मिलित हैं, क्योंकि उभयगुणसम्पन्न राजा को होना चाहिये। इस कारण (सोमम्+पिबतम्) सोमरस का पान कीजिये, क्योंकि आप इसके योग्य हैं। इसी प्रकार आगे भी व्याख्या कर्तव्य है ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यजाति को उत्तम और सुशील बनाने के लिये तीन मार्ग हैं, विद्या, धर्म और राज-नियम। परन्तु इन तीनों में राजदण्ड से ही संसार की स्थिति बनी रहती है, क्योंकि इसके उग्र दण्ड से आपामर डरते हैं। अतः राजमण्डल का वर्णन इस प्रकार वेद में कहा गया है ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनरपि राजप्रकरणभारभते।

पदार्थान्वयभाषाः - अत्र पुण्यात्मनो राजमण्डलस्यात्मानमुद्दिश्य वर्णनं प्रदर्श्यते। हे अश्विना=अश्विनौ पुण्यकृतौ राजानौ। युवाम्। अग्निना=अग्निहोत्रादिबशुभकर्मणा। सचाभुवा सहभुवौ सार्थमेव जातौ स्थः। यद्वा नित्यत्वाज्जीवस्य अग्निना सार्धमेव युवामपि आविर्भूतौ स्थः। एवमेवाग्रेऽपि बोध्यम्। सचाभुवेति पदं प्रत्येकमग्निप्रभृतिभिः संबद्धम्। एवमेव इन्द्रेण=विद्युच्छक्त्या। वरुणेन=वरणीयेन जलसामर्थ्येन, विष्णुना=सूर्यसामर्थ्येन, आदित्यैर्द्वादशमासशक्तिभिः। रुद्रैः=एकादशप्राणशक्त्या। वसुभिरष्टवसुशक्त्या च सचाभुवा सहभुवौ स्थः। अपि च उषसा प्रभातेन तदुपलक्षितेन मार्दवेन। सूर्येण च सूर्य्योपलक्षितेन तैक्ष्ण्येन सजोषसा संगतौ भवथः। तस्मात्। सोमं=यज्ञसिद्धमानन्दप्रदं सोमरसम्। पिबतम् ॥१॥